सस्थापक- महापद्मनंद
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बौद्ध साहित्य में महापद्मनंद को उग्रसेन कहा
गया है। जैन साहित्य परिशिष्ट पर्वन, जिसका लेखक हेमचंद्र सूरी है तथा जो गुजरात
के चालुक्य शासक जयसिंह जयसिंह सिद्धराज के दरबार में रहता था उसने आठवीं शताब्दी
शताब्दी में परिशिष्ट पर्वन लिखी। यह पुस्तक चाणक्य की जीवनी उपलब्ध कराने
वाला एकमात्र पुस्तक है।
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इस पुस्तक से तथा यूनानी यात्री नियार्कस की
पुस्तक एलीयायी से स्पष्ट होता है कि महापद्मनंद का पिता नाई (नापित) तथा माता
वेश्या थी।
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विष्णु पुराण में महापद्मनंद की निम्न कुल के
होने के कारण आलोचना की गयी है।
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यूनानी साहित्य में महामद्मनंद को विस्तृत राज
का स्वामी बताया गया है।
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कलींग नरेश खारवेल के उडि़सा स्थित, उदयगीरी या
खंडगीरी पर्वत से पाया गया हाथीगुम्फा अभीलेख से स्पष्ट होता है कि महापद्मनंद
मगध का प्रथम शासक था, जिसने कलींग पर विजय प्राप्त की।
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विष्णु पुराण तथा विष्णु पुराण के टिकाकार शिखर
स्वामी महापद्मनंद को समकालीन शक्तियों का विजेता कहा है।
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दक्षिण भारत में स्थित आंध्रप्रदेश के गोदावरी
नदी तट पर ‘अस्मक’ नामक महाजनपद को जीनते वाला महापद्मनंद ही था।
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महापद्मनंद के प्रधानमंत्री का नाम कलपक्क था।
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इसके पास दो लाख पैदल, दो हजार रथ, दो हजार हाथी
थे।
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युद्ध में हाथियों का प्रयोग करने वाला यह
प्राचीन भारत का प्रथम शासक था।
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युद्ध में हाथियों का प्रयोग करने वाला यह
प्राचीन भारत का प्रथम शासक था।
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इसे कली का अंश, सर्वछत्रांक्तक अर्थात् सभी
क्षत्रीयों का वध करने वाला, परशुराम का अवतार तथा भार्गव का अवतार कहकर संबोधित
किया गया है।
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विष्णु पुराण में इसे निम्नकुलिन शासक कहा गया
है।
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सेनाओं को संगठित करने वाला यह मगध का प्रथम शासक
था।
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अपने कार्यकाल में इसने बचे हुए सम्पूर्ण
क्षेत्र को जीतकर मगध में मिला दिया। यही कारण है कि यह कहा जाता है कि मगध
सम्राज्य का सबसे अधिक विस्तार इसी समय हुआ।
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महापद्मनंद के पश्चात् पांडूक, राष्ट्रपद,
पांडूवती, भुतपाल, गोविशांत, दाससिद्धक और कैवर्थ जैसे अयोग्य शासक हुए।
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इस वंश का अंतिम शासक घनानंद था।
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धन एकत्रित करने के कारण या धन का लोभी होने के
कारण इसे धनानंद भी कहा गया है।
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शत्रुओं का नाश करने के कारण इसे घनानंद कहा गया
है।
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इसका मुख्य सेनापति भद्रसाल था जबकि राक्षस एवं
सक्टार इसके मंत्री थे।
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यह जैन धर्म को मानता था।
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पुराणों में इसे जना का शोषक कहा गया है।
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विष्णु पुराण में राजनितिक एकता स्थापित करेन
का श्रेय इसे ही दिया जाता है।
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यह सिकंदर का समकालिन था।
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इसी के शासनकाल में सिकंदर ने व्यास नदी के तट
पर आक्रमण किया था।
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जितने भी बौद्ध साहित्य है उसमें इसे घनानंद कहा
गया है।
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यूनानी साहित्य में इसे अग्रमीज और जैनेन्द्रमिज
कहा गया है।
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विशाखादत् की मुद्राराक्षस से स्पष्ट होता है
कि इसने भरी दरबार में चाणक्य का अपमान किया था। जिससे क्रोधित होकर चाणक्य ने
नंद वंश के नाश की शपथ ली थी।
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विष्णु पुराण, मुद्रा राक्षस से स्पष्ट होता
है कि चंद्रगुप्त मॉर्य ने अपने ब्राम्हण मंत्री चाणक्य अर्थात् कौटिल्य या
विष्णुगुप्त के सहयोग से नंद वंश के नाश करके मॉर्य वंश की स्थापना की थी।
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विशाखदत् के मुद्राराक्षस में एक स्थान पर
वर्णित है कि चंद्रगुप्त मौर्य और घनानंद के बिच पाटलीपुत्र में युद्ध हुआ था
जिसमें घनानंद ने चंद्रगुप्त को हरा दिया था।
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विष्णु पुराण, इसके टिकाकार विष्णु स्वामी तथा
विशाखादत् की रचना मुद्राराक्षस से ही स्पष्ट होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने
चाणक्य की सहायता से नंदवंश को खत्म कर मौर्य वंश की स्थापना की।
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